Saturday, June 30, 2018

बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

मंदसौर हुआ या कठुआ था।
बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

बेटी जो राजदुलारी थी,
माता के गोद मे प्यारी थी।
वह बेटी देश की हमारी थी,
वह लगती लोगों को न्यारी थी।
उसके सपने को कुचल दिया,
सामाजिक भ्रम को तोड दिया।
हवस पिपासा कौंद दिया यूं क्यों?
बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

वह अभी सभी की बच्ची थी,
अपने दिल की वह अच्छी थी।
कुत्सित मानस से कच्ची थी,
वह बच्ची थी और सच्ची थी।
बहसी को समझ न पाई वह,
क्योंकि वह नाजुक बच्ची थी।
विश्वासों का कत्ल किया यूं क्यों?
बचपन को रौंद दिया यूँ क्यों?

बेशर्मी से कुछ उबरें हम,
बच्चों को बचपन दे दें हम।
हम किधर जा रहें सोचें हम,     
विकृत कृतियों को रोकें हम।
जानवर बनें कहें मानव हम,
जग सुधरेगा जब सुधरेंगें हम,
मानवता शर्मसार किया यूं क्यों?
बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

~ अनिल कुमार बरनवाल

Wednesday, June 27, 2018

अमर कीर्ति पा जाएं

बनो वृक्ष की तरह
धरा को बांधे रखती है।
वह पत्तों की छाया से,
शीतल मन सुख भरती है।

जीती है जब तक वह,
गुण दे,कष्टों को हरती है।
मर कर भी वह हरदम,
चौखट मचिया बन सजती है।

वायु शुद्ध हो मानवता की,
सांसों मे पवन सुधा भरती है।
पेड काटकर हम पृथ्वी पर,
सुन्दर सा महल बनाते है।

भूस्खलित हुई धरती और,
प्रदूषण जन वन तडपाते हैं।
सेवा दें पौधे सी माहिर,
जो जी लें दूजे की खातिर।

'अनिल' कहे हम पौधों से,
जीने का मकसद पा जाएं।
हरियाली जीवन भर देंवे,
और अमर कीर्ति पा जाएं।।

~ अनिल कुमार बरनवाल

Monday, June 25, 2018

आओ हम कुछ प्रतिकार करें

कंठो के उन्मुक्त वारो का,
सर्पों सी उत्पल चालों का,
दिल दुखा रही दिलवालों का,
प्रिय आओ हम संहार करे।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।।



जीवन में रस जब बचे नहीं,
हम खड़े खड़े बच जंचे नहीं,
खाए भी न पर पचे नहीं,
कुछ रच जच पच उपचार करें।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।।



अब तीक्ष्ण भीष्म सी गर्मी है,
अरू उष्णता आज हठधर्मी है,
बट बृक्ष कटे उसे जननी है,
पर्यावरण हम कुछ सुधार करें।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।।



भाईचारे का बोध करें,
कटुता शंका पर शोध करें,
जग जन में सुधा प्रबोध करें,
मानवता हम साक्षात्कार करें।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।


~ अनिल कुमार बरनवाल