Wednesday, October 30, 2019

एक दीप प्रेम का जल जाए

एक दीप प्रेम का जल जाए,
मैं  ऐसा  नेह  लगाऊं  क्या?

स्वच्छ रहे गांव और नगरी,
रंग  रोगन  घर  में  हो  जावे,
उस कलुषित मन की गाथा में, 
दिल को स्नेहिल कर पाऊँ क्या?।1
एक दीप ....।

निशा गहन है इस चेतन में,
अमावस दीप सब जले यहाँ,
रोशन होती इस रात्रि पहर में,
मन से अंधेरा मिटा पाऊँ क्या?
एक दीप....।

विजय दिवस का दीप जले,
आगमन सुखद हर खुशियाँ हो,
हर्षोल्लास की हर पल तरंगें हों,
दुर्गुण को सर्वनाश दिला पाऊँ क्या?
एक दीप ....।

शरद ॠतु  अभिनन्दन है,
'लक्ष्मी जी' का  वन्दन  है।
'दीपावली' शुभ हो 'अनिल' कहे,
आपस  का  उष्ण मिटा पाऊं क्या?
एक दीप ......।

~ अनिल कुमार बरनवाल
27.10.2019

Tuesday, October 22, 2019

मैं गीत लिखूं

अमावस के विरह अंधेरे में,
मैं पूनम का कोई गीत लिखूं।
तुम जाओ कोई बात बने,
मैं अपनापन का गीत लिखूं।।

जीवन में गिर कर उठता हूं,
कुछ उन लम्हों को तकता हूं।
उस अनुभव को एक स्वर दे दूं,
जिस अनुभव पर कुछ थकता हूं।
थककर भी मैं इस चितवन में,
प्रियतम सा सुन्दर मीत दिखूं।
मैं अद्भुत अनुपम गीत लिखूं।।

हे विधा लेखनी जीवन की,
कागज और कलम समेटे है,
उस कलम लपेटे स्याही से,
मैं अक्श मनोहर घर कर दूं।
हे अक्श धरोहर मधुरिम,
मैं तुझमें अपना प्रीत दिखूं।
मैं सुमधुर सुंदर गीत लिखूं।।


~ अनिल कुमार बरनवाल
22.10.2019

सुख आवे दिन मधुकर बीते

सुख आवे दिन मधुकर बीते,
दुख में रैना भी खलती है।
चादर में पैर पसारू तो,
फिर सारी देह उघरती है।।
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सुख बिन बांटे बंट जाता,
पर कष्टों की उम्र भयावह है।
फिर भी जीने की अभिलाषा,
मुझको कैंसर सी लगती है।।
सुख.....।

जीवन ने दिए बहुत अनुभव,
उसकी हर व्यथा निराली है।
मैं याद करूं फिर से किसको
दिल में इक आग सी जलती है।।
सुख.....।

ऋतु की तरह मिला जीवन,
मौसम सा रंग बदलता है।
बगिया में फूल भले कम हो,
कांटो में दुनिया पलती है।।
सुख .....।

'अनिल' लिख रहा है क्यों तू?
क्या कोई सुनने आएगा?
हर प्राणी व्यस्त यहां पर है,
बस समय की केवल चलती है।।
सुख ..... ।

~ अनिल कुमार बरनवाल
21.10.2019

Sunday, January 13, 2019

मां

मां का है कोई मोल नही,
मां ममता है हरबोल रही।
मां हरदम है अनमोल सही,
मां निस्वार्थी है कोई तोल नहीं।

मां रोती जब बचपन रोता,
मां हंसती जब बचपन हंसता।
मां किलकारी में जीवन संजता,
मां जंचती जब बचपन जंचता।

मां नौ मासों के कोखों वाली,
मां बगिया की अविरल माली।
मां वात्सल्य की सुमधुर थाली,
मां बच्चों के चेहरों की है लाली।

मां सेतुबंधन करने वाली,
मां त्याग मूर्ति त्यागन वाली।
मां सबको लेकर चलने वाली,
मां कहता 'अनिल' मधुरिम वाली।

~ अनिल कुमार बरनवाल,
12.01.2019

Thursday, September 20, 2018

खुल के सदा ही प्यार करो

कभी उसको नजरअंदाज न करो,
जो आपकी परवाह करता है।
कभी दिल मे मलाल न करो,
क्योंकि दिल शर्मसार भी रहता है।
मिलो तो खुलकर मिलो,
क्योंकि तभी मिलने का इन्तज़ार रहता है।
कहतें है जिन्दगी चार दिन की,
दो दिन गुबार में निकाल दिए,
तो बचता क्या है?
इसलिए जिओ तो खुलके जिओ,
खुलने में लगता क्या है,
आज है,कल का क्या?
परसो कौन देगा भरोसा?
वक्त बेवक्त कुछ तो ख्याल करो।
अपने जीवन से,
गर आऐ हो इस दुनिया में,
बेइन्तहां,
खुल के सदा ही प्यार करो।
खुल के सदा ही प्यार करो।

~ अनिल कुमार बरनवाल
20.09.2018

जो हंसे न लहलहाके

जो हंसे न लहलहाके,
वो फसल फसल नहीं।
जो शरण न दे किसी को,
वह महल महल नहीं।
जो चढे न देवता को,
वो कमल कमल नहीं।
जो हरे न पीर मन की,
वो गज़ल गज़ल नहीं।

~ अनिल कुमार बरनवाल
20.09.2018

हमसफर जब साथ होगा, हर सफर कट जाएगा

आग सीने मे लगी हो,
धुआं न बन पाएगा।
प्यार की हर किश्तीयों में,
साहिल नजर आ जाएगा।
हमसफर .................. । (1)

रहा गर्दिश सफर कोई,
गर्दिशे हवा मे उड जाएगा।
शरद कैसा बरसात कैसी?
ग्रीष्म उडता जाएगा।
हमसफर….................। (2)

खुश रहेगा दिल सदा ही,
आबाद करता जाएगा।
नशा हर पल नजर का हो,
दिल जिगर शोखी पाएगा।
हमसफर............….....। (3)

जवां दिल हो या बुढापा,
बोझ ना बन पाएगा।
'अनिल' कहता हर गली मे,
मस्त मौला गाएगा।
हमसफर.....................।  (4)

~ अनिल कुमार बरनवाल
17.09.2018