Thursday, September 20, 2018

खुल के सदा ही प्यार करो

कभी उसको नजरअंदाज न करो,
जो आपकी परवाह करता है।
कभी दिल मे मलाल न करो,
क्योंकि दिल शर्मसार भी रहता है।
मिलो तो खुलकर मिलो,
क्योंकि तभी मिलने का इन्तज़ार रहता है।
कहतें है जिन्दगी चार दिन की,
दो दिन गुबार में निकाल दिए,
तो बचता क्या है?
इसलिए जिओ तो खुलके जिओ,
खुलने में लगता क्या है,
आज है,कल का क्या?
परसो कौन देगा भरोसा?
वक्त बेवक्त कुछ तो ख्याल करो।
अपने जीवन से,
गर आऐ हो इस दुनिया में,
बेइन्तहां,
खुल के सदा ही प्यार करो।
खुल के सदा ही प्यार करो।

~ अनिल कुमार बरनवाल
20.09.2018

जो हंसे न लहलहाके

जो हंसे न लहलहाके,
वो फसल फसल नहीं।
जो शरण न दे किसी को,
वह महल महल नहीं।
जो चढे न देवता को,
वो कमल कमल नहीं।
जो हरे न पीर मन की,
वो गज़ल गज़ल नहीं।

~ अनिल कुमार बरनवाल
20.09.2018

हमसफर जब साथ होगा, हर सफर कट जाएगा

आग सीने मे लगी हो,
धुआं न बन पाएगा।
प्यार की हर किश्तीयों में,
साहिल नजर आ जाएगा।
हमसफर .................. । (1)

रहा गर्दिश सफर कोई,
गर्दिशे हवा मे उड जाएगा।
शरद कैसा बरसात कैसी?
ग्रीष्म उडता जाएगा।
हमसफर….................। (2)

खुश रहेगा दिल सदा ही,
आबाद करता जाएगा।
नशा हर पल नजर का हो,
दिल जिगर शोखी पाएगा।
हमसफर............….....। (3)

जवां दिल हो या बुढापा,
बोझ ना बन पाएगा।
'अनिल' कहता हर गली मे,
मस्त मौला गाएगा।
हमसफर.....................।  (4)

~ अनिल कुमार बरनवाल
17.09.2018

बस प्रेम का ही गीत गाऊं

जी लिया हूँ जी गया हूँ,
जीते जीते मर न जाऊं।
आज जीने की तपिस में,
ऐसा कुछ मैं करता जाऊं।
रात  की  गहरी तमस मे,
आस का दीपक जलाऊ।
निशब्द होते इस गगन में,
अमन का एक गीत गाऊं।
हर कली बन फूल महके,
फूल  का  गजरा बनाऊं।
चमन महके सुमन महके,
महक से ना  बहक पाऊं।
अब धर्म जोडे जाति जोडे,
इस जुडन मे लिपट जाऊं।
आज कहता है 'अनिल' यूं,
मनस मानव बन सजाऊं।
छल प्रपंची व दुष्कपट में,
बस प्रेम का ही गीत गाऊं।

~ अनिल कुमार बरनवाल
14.09.2018

थकना छोड दिया

अब थकना छोड दिया हमने,
जब चलना सीख लिया हमने।
कहते थे  घनघोर निशा  होगी,
अब आस प्रभात  चुना हमने।
जब  प्रलय विलापी सता रहा,
नवसृजन  हृदय  बुना  हमने।
पथभ्रष्ट  बने   कुछ   राहगीर,
पथ मान बढाया जब कुछने।
कुछ काल सदा ही गाल बनी,
अब काल कपाल चुना सबने।
जीवन  के  लक्ष्य  सदा  अद्भुत,
'अनिल' कहता चलना है सबने।
अरु कहता थकना नही  हमने।।
हां  थमना  नही  है अब सबने।।

~ अनिल कुमार बरनवाल
13.09.2018

Thursday, September 13, 2018

ए जिन्दगी तुझसे कल रात मुलाकात हो गई

ए जिन्दगी तुझसे कल रात मुलाकात हो गई
तुमनें जो दर्द दिया था उसी पे बात हो गई।
वफा मे मेरे क्या एहसास कम रहे?
एहसास थे या नहीं उसी पे
बात हो गई।
हर नजम गले से हमीं ने लगाया,
वो नजम थी नही कि उसी पे बात हो गई।
वो वक्त क्या रहा जब सिला ही नहीं मिला?
'अनिल' वक्त बेवक्त पर यूं ही बात हो गई।

~ अनिल कुमार बरनवाल
13.09.2018

एक पल ठहरा नहीं

एक पल ठहरा नहीं,
कि दिल मेरा थकने लगा।
रूह को महसूस करके,
सांस अब चलने लगा।
कल्पना आलेख लेकर,
आज ऐ तनहाइयां,
कब सबल एक साथ पाईं,
दिल मेरा हिलने लगा।
हर सफर के साथ का सुख,
सफर के अन्दाज का सुख,
हमसफर का बोध लेकर,
मन मयूरी आस लेकर
आज अब विश्वास लेकर,
दिल का सिला मिलने लगा,
'अनिल' सांस हर चलने लगा।

~ अनिल कुमार बरनवाल
12.09.2018

आज अश्को में नहा लीजिए

आज अश्को में नहा लीजिए,
कल सुबह होगी तो कुछ बात होगी।
दर्द दिल का कुछ तो बता दीजिये,
गम निपट जाए तो कुछ बात होगी।
लोग बेवजह नशा ढूंढते है शराब में,
मस्त आंखो में पिया कीजिए तो कुछ बात होगी।
मय्यते जहान में क्यूं घुटा करते हैं,
जिन्दा जहान में निपट लें तो कुछ बात होगी।
आप रोएं रूला न ले औरों को,
रोनी सूरत को हंसा दे तो कुछ बात होगी।
कल बिछडेंगे आज तो मिल बैठें,
आज के सुख मे कल का शोक भूला दें तो कुछ बात होगी।

~ अनिल कुमार बरनवाल
12.09.2018

जीवन

आज मिले कल बिछड जाएगें।
जीवन - फलसफा कंहा पाएंगे?
मौत भी एक इम्तिहान है यारों।
जिन्दगी भर कहाँ समझ पाएंगे?

~ अनिल कुमार बरनवाल
03.09.2018

मन

मन पावत है।
मन चाहत है।
मन कभी कभी,
समझावत है।
मन हरबोले,
को गावत है।
मन को कोई,
यूं ही भावत है।
मन की पीडा,
को कभी कभी,
मन के भाषा,
से छावत है।
मन हार गये,
मन जावक है।
मन जीत गये,
भरमावत है।
मन के हैं,
रुप कई दर्पण,
मन भाषा मे,
ही बुझावत है।
मन कहे 'अनिल',
मनःस्थिति,
मन को ही,
आंख दिखावत है।

~ अनिल कुमार बरनवाल
06.08.2018

आओ अब हम बोध पाएं

आओ अब हम बोध पाएं,
प्रेम का अनुरोध पाएं,
प्रेम में न छल पिपासा,
कुछ कहें और कुछ दिलासा,
अब दिली कुछ शोध लाएं।
आओ अब हम बोध पाएं।।

भावना का है अंधेरा,
रोज खोजें हम सबेरा,
सुवह की लाली छटा है,
वक्त अब कैसे कटा है?
इस सुबह जीवन सजाएं।
आओ अब हम बोध पाएं।।

हरित बृक्षों की कमी है,
गगनचुंबी हो खडी हैं,
नव सृजन की आपधापी,
लहू लूहाती धरा व्यापी,
बसुधा मस्तक हम सजाएं।
आओ अब हम बोध पाएं।।

शिक्षितों की यह भूलैया,
कौन खेवे यह खैवैया,
रोजगारी एक मिथक है,
शिक्षा व्यापारी जनक है,
'अनिल' शिक्षित हो कमाएं।
आओ अब हम बोध पाएं।।


~ अनिल कुमार बरनवाल
24.07.2018

Monday, July 23, 2018

मन जीत गया हम हार गए

जीवन मे खोया पाया था,
एक आस जगत का साया था
आशा मे सांस समाई थी,
हमे दिख न सका वह खाई थी,
हम उस पर शमां निसार गए।
मन जीत गया हम हार गए।।

मन चंचल था मन निश्छल था,
आंखो मे सपना विह्वल था,
सपनों मे रात बिसार दिए,
कुछ सृजन किया कुछ वार दिए,
सपनों मे मन श्रृंगार भए।
मन जीत गया हम हार गए।।

मन वात्सल्य सा आतुर था,
कुछ चपलित था कुछ कातर था,
वह पा ममत्व भावविभोर हुआ,
जीवन का एक सिरमौर हुआ,
मन की आभा का ठौर भए।
मन जीत गया हम हार गए।।

पाती अब पढी नहीं जाती,
लिखने वाले भी नहीं रहे,
संवेदन मर कर जिन्दा है,
लाशें भी अब शर्मिंदा है,
कह 'अनिल' सब वार गए।
मन जीत गया हम हार गए।।

~ अनिल कुमार बरनवाल
23.07.2018

Saturday, June 30, 2018

बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

मंदसौर हुआ या कठुआ था।
बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

बेटी जो राजदुलारी थी,
माता के गोद मे प्यारी थी।
वह बेटी देश की हमारी थी,
वह लगती लोगों को न्यारी थी।
उसके सपने को कुचल दिया,
सामाजिक भ्रम को तोड दिया।
हवस पिपासा कौंद दिया यूं क्यों?
बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

वह अभी सभी की बच्ची थी,
अपने दिल की वह अच्छी थी।
कुत्सित मानस से कच्ची थी,
वह बच्ची थी और सच्ची थी।
बहसी को समझ न पाई वह,
क्योंकि वह नाजुक बच्ची थी।
विश्वासों का कत्ल किया यूं क्यों?
बचपन को रौंद दिया यूँ क्यों?

बेशर्मी से कुछ उबरें हम,
बच्चों को बचपन दे दें हम।
हम किधर जा रहें सोचें हम,     
विकृत कृतियों को रोकें हम।
जानवर बनें कहें मानव हम,
जग सुधरेगा जब सुधरेंगें हम,
मानवता शर्मसार किया यूं क्यों?
बचपन को रौंद दिया यूं क्यों?

~ अनिल कुमार बरनवाल

Wednesday, June 27, 2018

अमर कीर्ति पा जाएं

बनो वृक्ष की तरह
धरा को बांधे रखती है।
वह पत्तों की छाया से,
शीतल मन सुख भरती है।

जीती है जब तक वह,
गुण दे,कष्टों को हरती है।
मर कर भी वह हरदम,
चौखट मचिया बन सजती है।

वायु शुद्ध हो मानवता की,
सांसों मे पवन सुधा भरती है।
पेड काटकर हम पृथ्वी पर,
सुन्दर सा महल बनाते है।

भूस्खलित हुई धरती और,
प्रदूषण जन वन तडपाते हैं।
सेवा दें पौधे सी माहिर,
जो जी लें दूजे की खातिर।

'अनिल' कहे हम पौधों से,
जीने का मकसद पा जाएं।
हरियाली जीवन भर देंवे,
और अमर कीर्ति पा जाएं।।

~ अनिल कुमार बरनवाल

Monday, June 25, 2018

आओ हम कुछ प्रतिकार करें

कंठो के उन्मुक्त वारो का,
सर्पों सी उत्पल चालों का,
दिल दुखा रही दिलवालों का,
प्रिय आओ हम संहार करे।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।।



जीवन में रस जब बचे नहीं,
हम खड़े खड़े बच जंचे नहीं,
खाए भी न पर पचे नहीं,
कुछ रच जच पच उपचार करें।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।।



अब तीक्ष्ण भीष्म सी गर्मी है,
अरू उष्णता आज हठधर्मी है,
बट बृक्ष कटे उसे जननी है,
पर्यावरण हम कुछ सुधार करें।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।।



भाईचारे का बोध करें,
कटुता शंका पर शोध करें,
जग जन में सुधा प्रबोध करें,
मानवता हम साक्षात्कार करें।
आओ हम कुछ प्रतिकार करें।


~ अनिल कुमार बरनवाल